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बैंड-एड है, इलाज नहीं

चूंकि इस समय रुपया और विदेशी मुद्रा भंडार दोनों गहरे दबाव में हैं, इसलिए उसे तुरंत संभालने के लिहाज से इन कदमों को उचित माना जाएगा। लेकिन यह टिकाऊ इलाज नहीं है।

जब गहरी चोट लग गई हो, तो बैंड-एड लगाना जरूरी हो जाता है। इसके बावजूद सच यही होता है कि बैंड-एड महज फौरी राहत पाने का उपाय है। जख्म को ठीक करने के लिए जरूरी दवाएं देनी होती हैं। तो यही बात रुपये की गिरती कीमत और विदेशी मुद्रा भंडार पर बढ़ते दबाव के बीच भारत सरकार की तरफ से उठाए गए कदम के बारे में कही जा सकती है। चूंकि इस समय रुपया और विदेशी मुद्रा भंडार दोनों गहरे दबाव में हैं, इसलिए उसे तुरंत संभालने के लिहाज से इन कदमों को उचित माना जाएगा। इसके तहत सरकार ने प्राइवेट कंपनियों को इस वित्त वर्ष में डॉलर में कर्ज ले सकने की सीमा को बढ़ा कर 1.5 बिलियन डॉलर कर दिया है। इसके अलावा भारत के बैंकों को यह अधिकार दिया है कि अनिवासी भारतीयों के निवेश को आकर्षित करने के लिए वे ब्याज दर के मामले में लचीला नजरिया अपना सकते हैं। हालांकि आज जो वैश्विक बाजार में ट्रेंड है, उसे देखते हुए भरोसे के साथ यह कहना संभव नहीं है कि इन कदमों से सचमुच कितना डॉलर भारत आएगा। इसके बावजूद सरकार ने अपनी तरफ से प्रयास किया है, यह जरूर कहा जा सकता है।

बहरहाल, बावजूद इसके यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि यह भारतीय मुद्रा को संभालने या विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति को सेहतमंद स्तर पर रखने का टिकाऊ उपाय नहीं है। स्वस्थ स्थिति यही होगी कि भारत आयात और निर्यात के बीच संतुलन बनाए। इसके लिए जरूरी हो, तो गैर जरूरी चीजों का आयात घटाने की नीति अपनाई जा सकती है। निर्यात बढ़ाना आसान लक्ष्य नहीं है, लेकिन इसके लिए भरसक कोशिश जारी रखी जानी चाहिए। इसके अलावा अगर विदेशों में काम करने वाले भारतीयों को लगातार वापस रकम भेजने के लिए प्रेरित किया जा सके, तो भारत कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करने में अधिक सक्षम हो सकेगा। फिलहाल, जो कदम उठाए गए हैं, वे दीर्घकालिक नहीं हो सकते। फिर उनमें अचानक डॉलर के पलायन का जोखिम भी बना रहेगा। पलायन की स्थिति में जिस मकसद से ये कदम उठाया गया है, वह परास्त हो जाएगा। इसीलिए यह जरूरी है कि समस्या का स्थायी इलाज किया जाए।

Aanand Dubey / Sanjay Dhiman

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