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गलवान के तीन साल

अनेक जानकार मानते हैं कि चीन के मामले में नेहरू सरकार की कुछ अस्थिर नीतियां 1962 में भारत को बहुत महंगी पड़ी थीं। गलवान कांड के तीन साल बाद अगर वैसी ही आशंका मंडरा रही है, तो वह बेवजह नहीं है। गलवान घाटी की दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद घटना की तीसरी बरसी एक उचित अवसर है, जब चीन के मामले में भारत की नीति का एक ठोस आकलन किया जाए। भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हुई उस हिंसक झड़प के तीन साल गुरुवार को पूरे हुए। इस बीच दोनों देशों के संबंध में तनाव बना रहा है और कई बार उसके खतरनाक रूप लेने के संकेत भी मिले हैँ। इसके बावजूद इस बारे में भारत सरकार को कोई स्पष्ट नीति अपना पाई है या असल हालत के बारे में देश को भरोसे में ले पाई है, यह नहीं कहा जा सकता। सारी स्थिति तो उस घटना के चार दिन बाद ही- यानी 19 जून 2020 को उलझ गई थी, जब सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया था कि ‘ना कोई घुसा है और ना कोई घुसा हुआ है।’ तब से भारत सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों की सारी ऊर्जा प्रधानमंत्री की बात को सही ठहराने में लगी है, हालांकि इस बीच तमाम किस्म के विपरीत संकेत मिलते रहे हैँ।

सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि अगर कोई भारतीय सीमा के अंदर घुसा नहीं था, तो गलवान घाटी में झड़प क्यों हुई और उसके बाद डेढ़ दर्जन से ज्यादा बार दोनों देशों के सैनिक कमांडरों के बीच किस मुद्दे पर बात हुई है? इस मामले में उलझाने वाला सबसे ताजा बयान हाल में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दिया। उन्होंने कहा कि चीन ने भारतीय जमीन पर कोई कब्जा नहीं किया है, लेकिन उसने अपने सैनिकों की फॉरवर्ड पोस्टिंग की है और वही तनाव का कारण है। जाहिर है, इस बात का सही अर्थ समझना कठिन है और इसीलिए इसका आसानी से गले उतरना भी मुश्किल है। दरअसल, यह समझना भी मुश्किल बना रहा है कि चीन अगर भारत के खिलाफ आक्रामक मुद्रा में है, तो भारत सरकार उसकी मंशाओं पर परदा डालने के प्रयास में क्यों जुटी रही है? अनेक जानकार मानते हैं कि चीन के मामले में नेहरू सरकार की कुछ अस्थिर नीतियां 1962 में भारत को बहुत महंगी पड़ी थीं। गलवान के तीन साल बाद अगर वैसी ही आशंका मंडरा रही है, तो वह बेवजह नहीं है।

Anand Dube

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