ब्लॉग

यह कैसा प्यार है ?

अजय दीक्षित
श्रद्धा मर्डर में क्रूरता की कडिय़ां सुलझी भी न थीं कि दिल्ली में एक और औरत के टुकड़े-टुकड़े करने का मामला उजागर हुआ । विडम्बना यह है कि कि हत्या में पत्नी व पुत्र शामिल थे । निस्संदेह आज भी हमारा बहुसंख्यक समाज मूल्यों का जीवन जीता है । लेकिन इक्का-दुक्का घटनाएं मीडिया के शोर में लोगों के विश्वास को डिगाती हैं । पहले ऐसी घटनाएं विदेशों में सुनाई देती थीं । विदेशों से निकलकर कब ऐसे विद्रूप रिश्तों ने भारतीय समाज में जगह बना ली, हमने महसूस ही नहीं किया । लेकिन एक बात तो तय है कि नजदीकी रिश्तों से मन भरना, हत्या करना और फिर फ्रिज में रखकर शव को टुकड़ों-टुकड़ों में ठिकाने लगाने का ट्रेंड समाज के लिये खतरे की घण्टी बजाने वाला है । तुरत-फुरत बनते और उतनी तेजी से दरकते रिश्ते आज का कष्टकारी यथार्थ है । जो संयम, धैर्य और आत्मीय अहसास हमारी संस्कृति-जीवन के अभिन्न अंग होते थे, उनका विलोप होना तकलीफ़देह है ।   कभी भारतीय परिवार संस्कृति की पूरी दुनिया में मिसाल दी जाती थी । कई पश्चिमी देशों के नागरिक भारत आते थे और फिर से भारतीय पद्धति से विवाह करके सुखी जीवन की कामना करते थे । लेकिन पिछले वर्षों में पश्चिम संचालित सोशल मीडिया ने भारतीय समाज को इतने दंश दिये कि उतने तमाम विदेशी आक्रांताओं ने नहीं दिये । दरअसल, पारिवारिक रिश्तों के दरकने के मूल में हमारी सामाजिक व पारिवारिक परम्पराओं का सिमटना भी है । भौतिक संस्कृति के प्रसार से तमाम जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है । पहले घर के बड़े बुजुर्ग रिश्तों में खटास और उतार-चढ़ाव आने पर एक सुरक्षा दीवार की तरह खड़े नजर आते थे । उनकी आंखों की शर्म और रिश्तों की गरिमा परिवार में संतुलन कायम रखती थी । लेकिन जैसे-जैसे हमारे जीवन में समाज की भूमिका खत्म हुई और संयुक्त परिवार बिखरे, एकाकी परिवार रिश्तों का त्रास झेलने लगे । व्यक्ति निरंकुश हुआ और उसकी निरंकुशता परिवार में टकराव की वजह बनी । यह टकराव कालांतर हिंसा में तब्दील हुआ । जो टुकड़े-टुकड़े होते रिश्तों के रूप में उजागर हो रहा है ।
निस्संदेह, महानगरीय जीवन में संघर्ष बढ़ा है । चुनौतियां बढ़ी हैं । कार्य परिस्थितियां चुनौतीपूर्ण हुई हैं । जीवन की जटिलताओं और आपाधापी से तमाम तरह के मनोकायिक रोग बढ़े हैं । लेकिन हमारे जीवन में धैर्य व संयम का कम होना तमाम हिंसक संघर्षों का कारण बना है । आये दिन सामने आने वाली रोड रेज की घटनाएं हों या जरा-जरा सी बात में हत्या कर देना, ये ट्रेंड हमारे समाज के लिये खतरे की घण्टी ही है ।

पहले समाज में मां-बाप ही बच्चों के रिश्ते तय करते थे और वे रिश्ते आमतौर पर स्वर्ण जयंती मनाते थे । सात जन्म निभाने की बात होती थी। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया कि अपनी मर्जी से रिश्ते में रहने वाली श्रद्धा का हश्र इतना भयावह हुआ । दरअसल, पश्चिम संस्कृति की आंधी में पवित्र रिश्तों को सिर्फ यौनिक सुख तक सीमित कर दिया गया है । कभी पश्चिम मीडिया में रिश्तों में क्रूरता की जो खबरें सुनकर हम हैरान होते थे, वे खबरें अब आम होती जा रही हैं । दरअसल, नैतिक मूल्यों का कोई स्थानापन्न नहीं है, जीवन साथी के साथ विश्वास स्थापित करने का दूसरा विकल्प नहीं है । कहीं न कहीं दिल्ली की दोनों घटनाओं में निरंकुश यौन व्यवहार व रिश्तों में अविश्वास ही मूल कारण रहा है । लेकिन इस अविश्वास व आक्रोश का खूनी प्रतिशोध में बदलना समाज के लिये गहरी चिंता की बात है । यह समाज विज्ञानियों के लिये मंथन का विषय है कि क्यों भारतीय समाज विद्रूपताओं से घिर रहा है ।

सबसे बड़ा सवाल समाज में नैतिक मूल्यों के पतन का है। हमारी सोच के सिर्फ और सिर्फ भौतिकवादी होने का है। हमें फिक्र होनी चाहिए कि आने वाला समाज कैसा होने जा रहा है । भोग लिप्सा की यह संस्कृति आखिर कहां जाकर थमेगी । यहां सवाल यह भी है कि हमारे राजनीतिक परिवेश व व्यवहार में जो हिंसा पिछले दशकों में नजर आई है, क्या समाज भी उसी रास्ते पर चल पड़ा है ? हमारी फिल्में जो आपराधिक कहानियों व दृश्यों से भीड़ जुटा रही थी क्या उस भीड़ ने उस खूनी हिंसा को अपने व्यवहार में आत्मसात कर लिया है ?

Anand Dube

superbharatnews@gmail.com, Mobile No. +91 7895558600, 7505953573

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *