श्रीलंका के लोगों ने राजपक्षे सरकार सरकार के खिलाफ बगावत की और गोटाबया राजपक्षे को राष्ट्रपति पद छ़ोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन उसके बाद आई सरकार भी देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने का रास्ता नहीं तलाश पाई है।
श्रीलंका में लोगों को आर्थिक मुसीबतों से राहत नहीं मिल रही है। बल्कि समस्याएं बढ़ती ही जा रही हैं। इससे बुरा हाल और क्या होगा कि लोग भोजन जुटाने के लिए अपनी जायदाद बेचने लगें? वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (डब्लूएफपी) की एक ताजा रिपोर्ट ने ऐसी दर्दनाक कहानियों को दुनिया के सामने रख है। सार यह है कि श्रीलंका में सबको भरपेट नसीब नहीं हो पा रहा है। महीनों से जारी मुद्रा संकट ने श्रीलंका की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को गरीबी में धकेल दिया है। नतीजतन, 30 फीसदी परिवार खाद्य असुरक्षा का शिकार हो गए हैँ। बाकी आबादी की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। डब्लूएफपी ने अपनी रिपोर्ट इसी वर्ष अक्टूबर में देश भर में किए व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की है। रिपोर्ट में कहा गया है- ‘दस में सात से ज्यादा परिवार खाना बचाने के लिए कोई ना कोई तरीका अपना रहे हैँ। मसलन, वे अपनी पसंद का खाना कम खा रहे हैं।’ सर्वे के दौरान सामने आया कि 80 फीसदी परिवार अपनी कोई ना कोई संपत्ति बेचने को मजबूर हो रहे हैं।
हकीकत यही है कि आज भी श्रीलंका की कृषि भी संकटग्रस्त है। इसकी शुरुआत पूर्व राजपक्षे सरकार के रासायनिक खादों के आयात पर अचान रोक लगा देने से हुई थी। कम फसल होने का असर पशुपालन और मुर्गीपालन पर भी पड़ा। इन सारे पहलुओं ने श्रीलंका की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से के सामने पेट भरने की समस्या खड़ी कर रखी है। बेशक इस चिंताजनक स्थिति के लिए पिछली सरकार की नीतियां दोषी हैं। पूर्व राष्ट्रपति गोटबया राजपक्षे के शासनकाल में श्रीलंका के सेंट्रल बैंक ने दो वर्ष तक मुद्रा की अंधाधुंध छपाई की। नतीजा हुआ कि इस वर्ष अमेरिकी डॉलर की तुलना में श्रीलंकाई रुपये की कीमत ढह गई। उसका परिणाम श्रीलंका के लोगों को भुगतना पड़ा है। उन्होंने राजपक्षे सरकार सरकार के खिलाफ बगावत की और गोटाबया राजपक्षे को राष्ट्रपति पद छ़ोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन उसके बाद आई सरकार भी देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने का रास्ता नहीं तलाश पाई है।