Wednesday, November 29, 2023
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चला ‘बुल्डोजर’ मंत्र, सपा गई चूक

अतुल सिन्हा
उत्तर प्रदेश में ‘डबल इंजन’ और ‘बुल्डोजर’ का मंत्र कुछ इस कदर सिर चढक़र बोला कि विपक्षी गठबंधन के सपने चकनाचूर हो गए। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग पूरी तरह फेल हुई तो प्रियंका गांधी का ‘लडक़ी हूं, लड़ सकती हूं’ का जबरदस्त अभियान ‘फ्लॉप’ हो गया। बेशक समाजवादी पार्टी एक मजबूत विपक्ष बनकर जरूर उभरने में कामयाब रहा। अगर आपने अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी के अभियानों और सभाओं की भीड़ देखी होगी और खासकर अखिलेश यादव के हौसले देखे होंगे तो यह मानना मुश्किल हो रहा होगा कि आखिर नतीजे ऐसे कैसे आ गए। लेकिन भाजपा की जो कार्यशैली रही है और जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर तमाम दिग्गज नेताओं ने खुद को यूपी पर केन्द्रित किया है, उससे ये नतीजे बहुत हैरत नहीं पैदा करते।

दरअसल, पिछले कई सालों से यूपी की सियासत एक खास दिशा में चलती रही है और अगर आप भाजपा की रणनीतियों पर गौर करें तो उसका सबसे बड़ा रणक्षेत्र यही प्रदेश रहा है। बेशक राम मंदिर और अयोध्या अब विवादास्पद या चुनावी मुद्दा न रहा हो, लेकिन मंदिर की राजनीति और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला में भाजपा ने इस प्रदेश में अपनी पुख्ता ज़मीन ज़रूर तैयार कर ली है। उसे सबसे बड़ा फायदा अगर मिला है तो वह है यहां के बिखरे हुए और कमज़ोर विपक्ष का। सपा के दागदार अतीत और बसपा की लगातार कमजोर होती ज़मीन, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बदहाली और इन तमाम पार्टियों से लोगों का तेजी से मोहभंग, भाजपा के लिए हमेशा से फायदेमंद रहा है।

बतौर विपक्ष अगर देखें तो इस बार समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर से खड़े होने की कोशिश जरूर की है। चुनाव से पहले के गठबंधन की जो रणनीति बनी थी बेशक उस पर कई सवाल अब उठेंगे और उसकी खामियों का भी विश्लेषण जरूर होगा। लेकिन इतना तो जरूर है कि जब विपक्ष इतने खेमों में बंटा हो और सबके अपने-अपने अहंकार हों तो भला आप भाजपा जैसी पार्टी को सत्ता से कैसे उखाड़ सकते हैं। यूपी के चुनावी गणित कम पेचीदा नहीं हैं। जातिगत आधार पर देखें या धर्म-संप्रदाय के आधार पर, यहां मुख्य मुद्दे हर बार कहीं न कहीं गुम हो जाते हैं और वोटों का ध्रुवीकरण इन आपसी बयानबाजियों और आरोपों-प्रत्यारोपों के भावनात्मक जाल में उलझ कर रह जाता है।

यूपी में जिस विपक्ष को कोरोना में सरकार की नाकामी, महंगाई, बेरोजग़ारी, किसानों की समस्या, छुट्टा पशु से त्रस्त किसान, लखीमपुर कांड या महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे अहम लग रहे थे, वहीं भाजपा के लिए इनकी कोई अहमियत नहीं थी। विपक्ष लगातार लोगों में ये अवधारणा बनाने की कोशिश करता रहा कि योगी सरकार तमाम मोर्चों पर नाकाम रही है, वहीं योगी और उनकी टीम डबल इंजन, विकास की गाथाएं, सरकारी योजनाओं के लाभ को अंतिम आदमी तक पहुंचाने के साथ गुंडों, दंगइयों पर बुल्डोजर चलाने के साथ-साथ वाराणसी, अयोध्या और अन्य धर्मस्थलों के कायाकल्प की बात करते रहे। बेशक उनके लाभार्थियों ने उनकी बात सुनी और उन्हें दोबारा मौका दे दिया।

लेकिन अब ये अहम सवाल है कि क्या इन नतीजों की रोशनी में हमें सपा या विपक्ष को एकदम कमजोर या असरहीन मान लेना चाहिए? क्या इसे 2024 में मोदी को वॉकओवर देने वाले नतीजे के तौर पर देखा जाना चाहिए? या फिर इससे सीख लेकर विपक्ष को नए और धारदार तरीके से अपनी रणनीति तैयार करने के तौर पर देखा जाना चाहिए। बेशक भाजपा ने यूपी में इतिहास रचा है। पहली बार प्रदेश में कोई सरकार दोबारा बनी है। इसने कई मिथक भी तोड़े हैं लेकिन पिछली बार की तुलना में देखें तो अखिलेश यादव की सपा को भी लोगों ने नकारा नहीं है। पिछली बार जहां विपक्ष सत्ता पक्ष के आगे कहीं नहीं ठहरता था, वहां इस बार वह एक मजबूत ताकत के तौर पर जरूर उभरा है।

कांग्रेस को जरूर आत्ममंथन करने की जरूरत है कि आखिर उनकी स्टार महासचिव और लोगों से सीधा कनेक्ट करने वाली, भावनात्मक तौर पर जुडऩे की कोशिश करने वाली प्रियंका गांधी को भी लोगों ने क्यों ठुकरा दिया और क्यों अब कांग्रेस का वजूद इस नई पीढ़ी के नेतृत्व में लगातार खतरे में पड़ता दिख रहा है। अगर अब भी कांग्रेस अपने नेतृत्व में बदलाव और संगठन की खामियों को लेकर गंभीर नहीं हुई तो आने वाले कुछ राज्यों के चुनावों के साथ-साथ 2024 में उसकी हालत और खस्ता हो सकती है। यूपी तो एक बानगी भर है।

मायावती की सोशल इंजीनियरिंग अब आम लोगों को या उनके तथाकथित वोट बैंक को कमरे में बंद होकर नहीं पसंद आ रही। न तो उनमें वो धार बची, न सियासत करने का वो जज्बा। ऊपर से उनके भाजपा के साथ दोस्ताना रिश्तों की चर्चा और आने वाले वक्त में उपराष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा। अब पता नहीं भाजपा के साथ भीतर ही भीतर उनकी क्या ‘बात’ हुई कि उन्होंने पूरी पार्टी को ही दांव पर लगा दिया।

ऐसे में अब भी अगर यूपी के लोगों के लिए उम्मीद की कोई किरण हैं तो वे थोड़े-बहुत अखिलेश यादव ही हैं। बेशक इस बार अखिलेश यादव ने अपने गठबंधन और प्रत्याशियों के चयन में कई रणनीतिक गलतियां कीं, जिसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। सपा के दागदार इतिहास को दोहराते हुए उन्होंने एक बार फिर ऐसे ही कई दागदार उम्मीदवार उतारने की गलती की। अपने सहयोगियों में न तो राष्ट्रीय लोकदल को सही प्रतिनिधित्व दे पाए और चाचा शिवपाल यादव को खुश करने के चक्कर में अपने ही कुछ लोगों को नाराज होने से भी नहीं बचा पाए।इससे कम से कम उन्हें पचास सीटों का नुकसान तो हुआ ही। जाहिर है ये सपा की अंदरूनी चिंता का विषय है और अखिलेश की टीम इसकी समीक्षा करेगी।

लेकिन फिलहाल तो अगले पांच साल एक बार फिर योगी आदित्यनाथ और भाजपा के खाते में चले गए। जाहिर है हर पार्टी अपनी हार की रणनीतिक खामियों की समीक्षा करेगी, कुछ समय बाद फिर से उठ खड़ी भी होगी, कुछ का मोहभंग होगा तो कुछ फिर से सत्ताधारी पार्टी की तरफ दौड़ लगाएंगे लेकिन सियासत में जंग कभी खत्म नहीं होती। खुद को फिर से स्थापित करने की कोशिश और सत्ता के दांवपेंच कभी कम नहीं होते। फिलहाल, यूपी में जश्न का माहौल है। भाजपा की जबरदस्त कामयाबी के बीच अब सबकी निगाह साल 2024 के इंतजार में है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Aanand Dubeyhttps://superbharatnews.com
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