मौद्रिक उपाय पर सवाल
भारतीय रिजर्व बैंक ने बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए मौद्रिक उपाय का सहारा लिया है। पहले कदम के तौर पर उसने ब्याज दर (रेपो रेट) में 40 आधार अंकों की बढ़ोतरी की और कैश रिजर्व रेशियो (सीआरआर) आधा प्रतिशत बढ़ा दिया। सीआरआर आधा प्रतिशत बढ़ाने से बाजार को 87 हजार करोड़ रुपए की मौद्रिक उपलब्धता कम हो गई। बहरहाल, सवाल है कि क्या इन उपायों से मौजूदा महंगाई पर काबू पाया जा सकता है? स्पष्टत: रिजर्व बैंक ने अमेरिका में अपनाई गई मौद्रिक नीति के अनुरूप कदम उठाया। लेकिन अब खुद अमेरिका में इस रास्ते से महंगाई पर काबू पाए जाने की संभावना पर सवाल उठाए जा रहे हैँ। न सिर्फ अनेक गंभीर अर्थशास्त्रियों, बल्कि बाजार से जुड़े विशेषज्ञों ने इस तरफ ध्यान खींचा है कि ऐसे मौद्रिक उपाय तब कारगर होते हैं, जब अर्थव्यवस्था ओवरहीटिंग का शिकार हो। यानी जब कर्ज लेकर निवेश करने का एनिमल स्पीरिट (यानी निवेश की होड़) बेकाबू हो रही हो।
ऐसा होने पर अधिक रोजगार पैदा होता है, लोगों की जेब में ज्यादा पैसा जाता है जिससे उनकी उपभोग क्षमता बढ़ती है, और इस कारण बाजार में सप्लाई से ज्यादा मांग पैदा हो जाती है। जबकि अभी- खास कर भारत में- स्थिति उलटी है। यहां अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्या उपभोग क्षमता घट जाने के कारण मांग का गायब हो जाना है। ऐसे में महंगाई की वजह उत्पादन की लागत बढऩा और उत्पादकों द्वारा सारी लागत उपभोक्ताओं पर ट्रांसफर कर देना है। ऐसे में ब्याज दर बढ़ाने या कर्ज के लिए उपलब्ध रुपये की मात्रा घटाने से शायद ही कोई लाभ होगा। बल्कि उसका उलटा असर यह होगा कि जिन लोगों और कंपनियों ने कर्ज ले रखा है, उनका बोझ बढ़ेगा, जिससे उपभोक्ताओं की जेब और खाली होगी। नतीजतन, उपभोग क्षमता घटेगी, जिससे मांग गायब होने की समस्या और गंभीर होगी। इस नजरिए से कही जा रही बातें तार्किक लगती हैं। इसलिए बेहतर होगा कि नीति निर्माता इस पर गौर करें। या फिर मौद्रिक सख्ती से महंगाई रोकने की उनकी सोच के पीछे क्या तर्क हैं, इस बारे में वे देश को भरोसे में लें।