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अन्न की बर्बादी

किसानों के खून-पसीने से उगाये और करदाताओं की मेहनत की कमाई से खरीदे गए अनाज के बड़ी मात्रा में उचित भंडारण के अभाव में बर्बाद होने की खबरें हर साल आती हैं। इसके बावजूद बारिश में भीगने तथा पक्षियों व अन्य जीवों द्वारा अनाज के ढेरों की बर्बादी की खबरें हर साल अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। लेकिन प्रबंधन से जुड़ा तंत्र व निगरानी करने वाला प्रशासन इस मुद्दे पर संवेदनहीन बना रहता है। इसी तरह की आपराधिक लापरवाही की नवीनतम घटना करनाल में नजर आई जहां खुले में पड़े अनाज से भरी बोरियों के ढेर बारिश में खराब होते देखे गये। जाहिर है यह अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित होना होगा। बहुत संभव है कि अनाज की बर्बादी की जवाबदेही से बचने के लिये खराब अनाज भी गुपचुप तरीके से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये भेजी जाने वाली अनाज की खेप में खपा दिया जाये।

यह विडंबना ही है कि गुणवत्ता से भरपूर अनाज उत्पादन के लिये अग्रणी पंजाब और हरियाणा में ऐसे तमाम मामले प्रकाश में आ रहे हैं। जबकि जवाबदेही तय करके और रखरखाव की उचित व्यवस्था करके इस मौसमी परिवर्तन से होने वाले नुकसान को टाला भी जा सकता है। यह विडंबना ही है कि कई राज्य खाद्यान्न संकट से जूझ रहे हैं और वहीं दूसरी ओर हजारों टन अनाज बारिश व धूप में पड़ा हुआ सड़ता रहता है। इन राज्यों में गुणवत्ता निरीक्षण के दौरान कई ऐसे मामले प्रकाश में आते रहे हैं। निस्संदेह, यह आपराधिक लापरवाही से होने वाली राष्ट्रीय क्षति भी है। इस अनाज को उगाने में कृषक के श्रम के अलावा बिजली-पानी व भूमि की उर्वरता की लागत भी शामिल होती है। अनाज के बर्बाद होने ये घटक भी व्यर्थ चले जाते हैं जो सही मायनों में राष्ट्रीय संसाधनों की क्षति ही है, जिसे भंडारण की क्षमता के विस्तार और जवाबदेही तय करके टाला भी जा सकता है।

यह विडंबना ही है कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा देश अब तक अपने नागरिकों के खाद्यान्न का उचित भंडारण नहीं कर पाया है। दशकों से मंत्री व अधिकारी लंबे-चौड़े दावे करते आये हैं कि अनाज भंडारण की फुलप्रूफ व्यवस्था की जायेगी। देश में पर्याप्त गोदामों के अभाव में बेशकीमती अन्न की यूं ही बर्बादी होती रहे, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। इस बाबत देश की शीर्ष अदालत भी कई बार सख्त टिप्पणी कर चुकी है। प्रबंधन से जुड़ी नियामक संस्थाओं को फटकार लगा चुकी है कि यदि गोदामों में जगह नहीं है और कीमती अनाज को सडऩे व बर्बाद होने से नहीं बचाया जा सकता तो इस अनाज को गरीबों में बांट दीजिए। लेकिन अधिकारी हैं कि फटकार सुनकर भी चिकने घड़े बने हुए हैं। जिस देश में कुपोषण व भुखमरी के आंकड़े पड़ोस के गरीब मुल्कों से अधिक हों, वहां लाखों टन अनाज यूं ही जाया चला जाये, इससे ज्यादा दुखद स्थिति कुछ और नहीं हो सकती। जटिल परिस्थितियों के बीच लाखों बोरी अनाज को बारिश में भीगने देना, चूहों, पक्षियों तथा कीड़ों द्वारा अखाद्य बनाना देश के नीति-नियंताओं पर सवालिया निशान लगाता है।

यह विडंबना ही है कि जो देश आजादी से पहले सदियों तक अकाल व सूखे की वजह से खाद्यान्न संकट से जूझता रहा हो, वहां अन्न की शर्मनाक तरीके से बर्बादी जारी है। आजादी के बाद भी ऐसे संकट आये कि हमें आयातित गेहूं के लिये अमेरिका का मुंह ताकना पड़ा था। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्रदान की। लेकिन हमें इस उपलब्धि को यूं ही नहीं गंवाना चाहिए। हमें इस अनाज को भुखमरी व कुपोषण के खिलाफ सशक्त हथियार बनाना चाहिए। गत वर्ष मई में जब गेहूं की खरीद एक सार्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई थी तो केंद्र सरकार ने जुलाई के अंत तक दो प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्यों पंजाब व हरियाणा में सौ फीसदी वैज्ञानिक भंडारण का आश्वासन दिया था, लेकिन करनाल का मामला बताता है कि दावे हकीकत नहीं बने हैं। इस मामले में उच्चतम स्तर पर दोषियों की जवाबदेही तय करते हुए सख्त कार्रवाई की जाए।

Aanand Dubey

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