मेरे तो सत्ता गोपाल….
अजय दीक्षित
मेरे तो गिरधर गोपाल गाने के दिन सो बीत गये । सन् 1950 से पहले तक भी गिरधर गोपाल जनमानस के जेहन में थे । पूर्ण पवित्रता के साथ तब समाज बंटा नहीं था, एक था । लेकिन इस देश के सत्ताधीशों का लोकतंत्र से पाणिग्रहण होने के बाद जीवन के मकसद, अर्थ, प्रयोजन ही, बदल गये । समाज की सतह पर वाचाल बाजीगर उभर आये, जो सार्वजनिक मंचों पर निहायत सफेद झूठ को पूर्ण आत्मविश्वास के साथ सत्य के रूप में परोसते रहे और झूठे वादे करते रहे । सत्तर साल से लोकतंत्र की यह रामलीला हर चुनाव के नाम पर, पाँच साल बाद पूर्ण साजधज्जा से सजाई जाती रही है । आश्वासनों के षट् व्यंजन सत्ता समारोह के लिए परोसे जाते हैं । देश भक्ति और राष्ट्रीय अनुराग की लोली पोप चूसने के लिए बॉंटी जाती है, जिन्हें भूखा बोटर पाँच साल तक चूसता रहता है । ये ठप्पा बरदार डिब्बा सरदार ई.वी.एम. के पंख पर सवार होकर सत्ता मन्दिर तक पहुँच जाते हैं । गोबरी लाल से करोड़ी लाल बन जाते हैं और फिर भजन मंडली में खड़ताल लेकर नाचते गाते नजर आते हैं –मेरे तो सत्ता गोपाल, दूसरो न कोई / जासो मिले झंडी कार, मेरो पति सोई । तो राष्ट्रीयता के पुजारी जो कभी गरीबों के आँसू पोंछने निकले थे और जिन्होंने रावी के तट पर कसम खाई थी कि हर बेईमान को बिजली के खम्भे पर टांग दिया जावेगा, अब सत्तर साल बाद गुनगुना रहे हैं कि राम तेरी गंगा मैली हो गयी, पापियों के पाप धोते-धोते भी, हमारे देश में गंगा में मैल धोने की प्रक्रिया दशकों से चल रही है । रिश्वत खोर अफसर, मुनाफाखोर ठेकेदार करोड़ों रुपये डकार गये, पर गंगा के मैल न धुले थे, न धुलेंगे । पिछली आधी शताब्दी से गंगा सफाई का करोड़ों रुपया डकार गये । दशकों से करोड़ों पापी, पाप धोने का अभिनय करते रहे हैं और करते रहेंगे । मानसी गंगा में नहाओ, वह जो तुम्हारे भीतर बह रही है । पाप धोने का ढोंग सार्वजनिक क्यों कर रहे हो । कर्मों की पवित्रता ही उसका फल है, यही सुख और संतोष है ।
कुंभ स्नान तो राष्ट्रीय एकता का पवित्र अनुष्ठान है, उसे चलने दो । कुंभ के महान आशय राष्ट्रीय एकता को राजनीति के कीचड़ में मत घसीटो । लोगों का धर्म पर से विश्वास ही उठ जायेगा, जैसे जनप्रतिनिधियों के प्रति उठ रहा है । जनता अब सोचती है कि वोट के मंगते भिखारी, सत्ता का स्वाद चखने के लिए हर पाँच साल बाद दरवाजे पर झुक-झुक कर सलाम करते हैं । इन गोबरी लालों को तो सिर्फ देश की सेवा करनी है । गली और मौहल्ले की नहीं । भले ही सैकड़ों निरीह नकली शराब पीकर मर जायें, सियासत चलनी चाहिये । ऐसे भी देश सेवक हैं, जिनके पिताजी तो वृद्धाश्रम में हैं, माताजी बरतन मांजती फिर रही हैं, औलादें चाकू की नौंक दिखाकर दुर्योधन बने घूम रहे हैं । ऐसे महान संस्कारी श्रवण कुमार अब देश की सेवा के लिए आपके द्वार पर दस्तक दे रहे हैं । सिर्फ कुर्सी के लिए, आजीवन सुख उपभोग के लिए और अतीत व्यतीत हुए सत्ताधारियों को कोसते हुए अपनी गोटी फिट कर रहे हैं । मेरे तो सत्ता गोपाल, दूसरो न कोई — लो देखो आयाराम गयाराम की फसलें, देश सेवा के लिए लहराने लगी हैं । हर दल में टिकट पाने के लिए कौरव पांडवों के दल भिड़ रहे हैं । टिकिट पाने के लिए धक्का-मुक्की, मारपीट चल रही है । कपड़े फट रहे हैं । टी. बी.चैनल चटखारे ले-लेकर खबरें परोस रहे हैं । एंकर तो लगने लगा है कि भाड़े पर ही किसी दल का गुणगान करने के लिए ही बैठे हैं । समाचारों और प्रस्तुत विचारों को ऐसे दिग्भ्रमित किया जा रहा है जैसे सारा देश स्वर्ग की देहरी पर खड़ा हो चला है । नारों, यादों का कुहरा देश में पैदा किया जा रहा है ।
असलियत किसी की भी नजर न आये, अलावा सत्ता सेवक के । क्या भगवान अथवा धर्म भी अब तिजारती सामान हैं ?