श्रीलंका में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता एवं आर्थिक संकट
विकाशकुमार
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य अस्थिरता के आयामों से गुजर रहा है । यह अस्थिरता ( राजनैतिक , सैन्य , आर्थिक और सामाजिक ) किसी भी प्रकार की ठोस संरचना गढऩे में असफल भी प्रतीत हो रही है । बीते कुछ वर्षों में कुछ देशों की सामरिक रणनीतियाँ तो सुदृढ़ ( व्यक्तिगत ) हो रही है ,परंतु वह सार्वजनिक निकायों में प्रासंगिक न होकर बहुधुरीय व्यवस्थाओं में हैजिमनी स्थापित करने का प्रयास कर रहीं हैं । श्रीलंका में भी उभरते आर्थिक संकटों के परिणामस्वरूप राजनैतिक अस्थिता का नया उभार जनाक्रोश के रूप में दिख रहा है । लोग राष्ट्रपति भवन (गोटयाबा राजपक्षे तत्कालीन राष्ट्रपति ) में विरोध करते हुए प्रवेश कर गए है ।
जानकारियों के मुताविक करोड़ों रुपये के करेंसी ( नकद ) मिली है । वहाँ के चुनाव में चयनित प्रधानमंत्री (महिंदा राजपक्षे ) सैन्य सहायता से देश पारागमान कर गए है । यद्यपि वहाँ ऐसी समस्याएं कई महीनों से बनी हुयी थी जिससे विदेशी मुद्रा के अभाव के कारण वहां के नागरिकों को बुनियादी ( दैनिक जीवन से संबंधित ) वस्तुएं तक नहीं मिल पा रहीं थी कि वह अपना गुजारा कर सके । मंहगायी का पैमाना बहुत बढ़ चुका था कि लोग उसकी आयदगी करके आवश्यक वस्तुवों का क्रय नहीं कर सकते थे ।
श्रीलंका आर्थिक तंगी से जूझ रहा है कई आंकड़ों की माने आज श्रीलंका पर पचास अरब डॉलर के बाहरी कज़ऱ् का बोझ है, जिसका सबसे बड़ा हिस्सा (लगभग 47 प्रतिशत) बाज़ार से अंतरराष्ट्रीय सरकारी बॉन्ड के ज़रिए लिया गया है । साथ कई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से भी व्यापक कर्ज लिया हुआ है उसके पास महज़ 2 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा है, जिससे बमुश्किल दो महीने के आयात का ख़र्च पूरा हो सकता है। परंतु सम्पूर्ण खर्च का निर्वहन नहीं हो सकता है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है की वहाँ आंदोलन और विरोध बहुत पहले से चल रहा है तब सरकार का इस ओर ध्यान क्यों नहीं गया ? क्या सरकार जनाक्रोश और अराजक रवैया का इंतजार कर रही थी ? क्या सरकार के वित्तीय सलाहकारों और अन्य एजेंसियों ने अवगत नहीं कराया होगा ? और क्या सरकार इससे अवगत नहीं थी तब समाधान क्यों नहीं ढूंढा गया ।
विकल्प की खोज क्यों नहीं की गई ? ऐसे में कई प्रश्न उठाए जा सकते है परंतु समस्या इससे आगे बढ़ गई है । वहाँ लगातार विदेशी शक्तियों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है और महाशक्तियाँ सदैव अस्थिरता बनाने का माहौल बनती , क्योंकि इससे इन्हे अपनी शर्तों पर वहाँ के संसाधनों के दोहन का अवसर मिल जाता है । यदि इस तथ्य की पुष्टि करते हुए चीन का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है क्योंकि अकेले 5-8 अरब डॉलर के बीच चीन का कर्ज है। यदि थिंक टैंक यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज के द्वारा दी गई जानकारी का संकलन प्रस्तुत करे तो श्रीलंका को इस साल कुल 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का कर्ज चुकाना है, जिसमें जुलाई में मेच्योर होने वाला 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का सॉवरेन बॉन्ड भी शामिल है। इतना ही नहीं श्रीलंका ने आर्थिक संकट के चलते अपनी जमीन के पट्टे और बंदरगाह भी उसे लीज में प्रदान कर दिया है जिससे उसके विदेशी मुद्रा का स्रोत सीमित हो गया है । जैसे इसका सबसे बाद उदाहरण हंबनटोटा बंदरगाह है। कई मामलों में तो श्रीलंका ने निवेश के बदले में चीन को पट्टे पर अपनी ज़मीनें ही दे दी हैं- मिसाल के तौर पर कोलंबो के पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट में चीन ने 1.4 अरब डॉलर के निवेश के बदले में 100 हेक्टेयर ज़मीन हासिल की है । यही कई कारणों से चीन का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया ।
कोरोना महामारी के चलते वहाँ पर्यटकों की संख्या भी बहुत काम हुयी है , परंतु इस संख्या के काम होने का कारण वहाँ की डोमेस्टिक पॉलिसी भी है । जैसे कोलंबो के विभिन्न गिरिजाघरों में अप्रैल, 2019 में हुई ईस्टर बम विस्फोटों की घटना में 253 लोग तो हताहत हुए ही, इसके परिणामस्वरूप देश में पर्यटकों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई जिससे उसके विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी असर पड़ा। यही कारण है की पर्यटन उद्योग से कमाई बेहद कम (2018 में 4 अरब डॉलर से घटकर 2021 में 15 करोड़ डॉलर) ही रह गई और इससे श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार भी ख़ाली हो गया. हालांकि, इस संकट की नींव तो बहुत पहले से रखी जा रही थी. साल 2009 से 2018 के दौरान श्रीलंका का व्यापार घाटा पांच अरब डॉलर से बढक़र 12 अरब डॉलर तक पहुंच गया।
हाल के वर्षों में कई नीतिगत क़दमों की वजह से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को कई और झटकों का भी सामना करना पड़ा है. जैसे कि- टैक्स में भारी कटौती, ब्याज दरों में कमी और फर्टिलाइजऱ व कीटनाशक के आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाकर एक झटके में ऑर्गेनिक खेती के तबाही लाने वाले फ़ैसले, जो राजपक्षे सरकार ने लिया जिससे वहाँ के खाद्य उत्पादन में भारी गिरावट आयी । इन सभी गतिविधियों के चलते वहाँ आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ । ऐसे में भारत ने कई आधारों पर श्रीलंका को सहायता पहुंचायी है , परंतु वह पर्याप्त नहीं है । भारत को चाहिए की ऐसे में श्रीलंका को यथोचित सहायता करे, क्योंकि चीन की गतिविधियों को वहाँ रोकने के लिए यह कदम आवश्यक हो जाता है । इस कदम से वहाँ के नागरिक समाज का रुख भारत के प्रति बढ़ेगा और सॉफ्ट पावर विकसित हो सकेगा । क्योंकि भारत के जलमार्ग के लिए वहां के कई बंदरगाह और जमीन ए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। भारत की व्यापारिक वस्तुएं अभी भी समुद्री मार्ग से होकर आती हैं यदि चीन का यहां हस्तक्षेप अधिक बढ़ता है तो भारत के लिए एक नवीन समस्या उत्पन्न हो सकती है।