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सवाल तो जायज है

करीब एक हफ्ते तक चली 5-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से केंद्र सरकार की 1.5 लाख करोड़ रुपयों की आमदनी होगी। यानी बाजार ने इसकी यही कीमत लगाई। तो सहज ही कई हलकों से यह सवाल उठाया गया कि आज से तकरीबन 12 साल पहले हुई 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी पर तत्कालीन सीएजी एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के अनुमानित नुकसान के निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा था। अगर आज की कीमतों पर 5-जी स्पेक्ट्रम की कुल कीमत डेढ़ लाख करोड़ रुपये है, तो उस समय 2-जी स्पेक्ट्रम की कीमत दो लाख करोड़ से भी ज्यादा (जो रकम सरकारी खजाने में आई और जो कथित तौर पर नुकसान हुआ) कैसे हो सकती थी? ये मामला इसलिए बेहद गंभीर है, क्योंकि 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में हुए कथित घोटाले से ही यूपीए सरकार के पतन की शुरुआत हुई थी। इस उठाए गए सवाल के पीछे यह सोच अनिवार्य रूप से मौजूद है कि वह सारा मामला बनावटी था और उसके पीछे उन कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिक ताकतों का हाथ था, जो यूपीए को सत्ता से हटाना चाहते थे। उस कथित घोटाले से संबंधित मुकदमे पहले ही कोर्ट में खारिज हो चुके हैं।

तो अब यह विचारणीय है कि आखिर लोकतंत्र में कौन-सी ताकतें प्रचार और संगठन की ऐसी क्षमता रखती हैं, जो मामलों को गढ़ कर पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी से उतार दें? अब वो समय वापस नहीं लाया जा सकता। इसके बावजूद ऐसी घटनाओं और परिघटनाओं पर जरूर चर्चा होनी चाहिए, ताकि आखिरकार इतिहास अपना सही फैसला दे सके। इस बार की नीलामी में भुगतान के लिए कंपनियों को एक विशेष सहूलियत दी गई है। कंपनियां भुगतान 20 सालाना किस्त में कर सकेंगी। हर साल किस्त को साल की शुरुआत में अग्रिम राशि के रूप में जमा कराना ना होगा। 10 सालों बाद स्पेक्ट्रम को वापस लौटाने का भी विकल्प खुल जाएगा। स्पष्टत: ये शर्तें कॉरपोरेट सेक्टर के मनमाफिक हैं। अब प्रश्न यह है कि अगर तब की सरकार पर क्रोनी कैपिटलिज्म में शामिल होने का आरोप लगा था, तो ऐसी शर्तों को क्या कहा जाएगा?

Aanand Dubey

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