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मुफ्त में कोई कुछ नहीं बांटता

हकीकत यह है कि कोई भी सरकार किसी नागरिक को मुफ्त में कुछ नहीं देती है। देश के नागरिक हर सेवा या वस्तु के लिए कर के रूप में कीमत चुकाते हैं। उसी पैसे से नागरिकों को कुछ सेवाएं या वस्तुएं दी जाती हैं।

यह गजब बात है, जो सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह चुनावों में मुफ्त बांटने की पार्टियों की घोषणाओं पर रोक लगाने के उपाय खोजे। गजब इसलिए है क्योंकि कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगा कर इसकी मांग की गई थी, तब अदालत ने याचिका खारिज कर दी थी कि वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती है। लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री ने ‘रेवड़ी कल्चर’ का मुद्दा उठा कर इस पर निशाना साधना शुरू किया वैसे ही सुप्रीम कोर्ट को लगा कि केंद्र सरकार इस पर रोक लगाने के उपाय खोज सकती है। सवाल है कि लोक कल्याणकारी राज्य में नागरिकों को कोई वस्तु या सेवा देने में क्या गलत है और इसे क्यों रोका जाना चाहिए?

इसलिए सबसे पहले यह तय करना होगा कि मुफ्त बांटना या मुफ्त में कोई चीज देने की घोषणा का क्या मतलब है? एक लोक कल्याणकारी राज्य में नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं देने को मुफ्त में देना नहीं कहा जा सकता है। ऐसा कह कर देश के नागरिकों को अपमानित किया जा रहा है। उनकी गरिमा गिराई जा रही है। उन्हें मुफ्तखोर ठहराया जा रहा है, जिसके लिए पार्टियों ने लाभार्थी या नमकहलाल मतदाता जैसे जुमले गढ़ लिए हैं।

हकीकत यह है कि कोई भी सरकार किसी नागरिक को मुफ्त में कुछ नहीं देती है। देश के नागरिक हर सेवा या वस्तु के लिए कर के रूप में कीमत चुकाते हैं। उसी पैसे से नागरिकों को कुछ सेवाएं या वस्तुएं दी जाती हैं।

सो, सबसे पहले तो यह कहना बंद करना होगा कि कोई पार्टी या सरकार नागरिकों को मुफ्त में कोई चीज दे रही है। क्या देश की सर्वोच्च अदालत को पता नहीं है कि भारत में सोशल सिक्योरिटी नाम की चीज नहीं है। देश की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है या असंगठित क्षेत्र में काम करती है, जहां वेतन या पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं है। अगर अपने नागरिकों से कर वसूल कर या देश के संसाधनों का इस्तेमाल कर पैसे कमा रही सरकारें उनके ऊपर खर्च नहीं करेंगी या ध्यान नहीं रखेंगी तो कौन रखेगा? सरकारें अगर नागरिकों को अच्छी व सस्ती शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराए या सस्ती या बिना कीमत के बिजली व पानी उपलब्ध कराए, बेहतर परिवहन सेवा बनाए तो उसे मुफ्तखोरी नहीं कहा जा सकता।

हैरानी है कि सरकारें हर साल उद्योग जगत को लाखों करोड़ रुपए की सब्सिडी देती हैं और बैंक कॉरपोरेट को दिए कर्ज में से लाखों करोड़ रुपए हर साल बट्टेखाते में डालते हैं। लेकिन उसे मुफ्तखोरी नहीं कहा जाता है। फिर नागरिकों को बिजली, पानी, अनाज, किसानों को सम्मान निधि देने या नागरिकों को वैक्सीन लगवाने को मुफ्तखोरी कैसे कहा जा सकता है?

Aanand Dubey

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