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बकाए बिजली बिल

अजय दीक्षित
पीएम मोदी ने खराब भुगतान की पुरानी आदत और देश में ऊर्जा संकट की ओर ध्यान आकर्षित कराया है । यह संकट 2.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का है, लिहाजा हालात सामान्य नहीं हैं । पीएम मोदी का बयान भी गम्भीर है, आगाह करने वाला है, क्योंकि भुगतान का बकाया बना रहेगा और बिजली उत्पादक कम्पनियों का घाटा बढ़ता रहेगा तो एक स्थिति यह भी आ सकती है कि बिजली पैदा करने का सवाल खड़ा हो जाये और देश का बड़ा हिस्सा अंधेरे में डूबता लगे ।  यदि मौजूदा बिजली संकट को आम नागरिक के नज़रिये से देखें, तो यह मासूम और बेकसूर है । औसतन नागरिक समयबद्ध तरीके से बिजली के बिल का भुगतान करता है ।

उसे बिजली कनेक्शन काट दिये जाने का भी भय रहता है ।  सवाल यह है कि ऐसे भुगतान के अरबों रुपये कहाँ ठहर जाते हैं या रोक लिए जाते हैं अथवा सब्सिडी का भुगतान भी नियमित तौर पर नहीं किया जाता ।  सरकार के खातों में कई फ्रॉड दफन हैं ।  उनकी जांच होनी चाहिये ।  देश में लगभग सभी सरकारें सब्सिडी मुहैया कराती हैं, लेकिन उसका यथा समय भुगतान न करने से बिजली वितरण के नुकसान भी बढ़ते रहते हैं ।  नतीजतन बिजली उत्पादक कम्पनियों पर भी व्यापक आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं ।  बीते जुलाई माह तक 1.13 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा राज्यों पर अथवा बिजली वितरण कम्पनियों पर बकाया थे, जो उन्हें उत्पादक कम्पनियों को देने चाहिये थे ।  बिजली वितरण कम्पनियों का अपना रोना है कि उनका कुल घाटा 5,22,869 करोड़ रुपये का है ।  यानि जिस संकट का खुलासा प्रधानमंत्री ने देश के सामने किया है, संकट उससे भी ज्यादा गहरा और व्यापक है ।  सरकारी डाटा के मुताबिक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और जम्मू कश्मीर आदि राज्यों और संघ शासित क्षेत्र पर सबसे ज्यादा बकाया शेष है ।

तमिलनाडु पर 25,553) करोड़, महाराष्ट्र पर 19,745 करोड़, उप्र पर 10,755 करोड़ और जम्मू-कश्मीर के हिस्से 10,669 करोड़ रुपये के करीब बिजली भुगतान का बकाया खड़ा है ।  इनके अलावा मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, हरियाणा, झारखण्ड, राजस्थान, बंगाल, केरल, पंजाब और आंध्रप्रदेश आदि राज्य भी इसी हमाम में नंगे हैं । सवाल है कि राज्यों के बिजली बोर्ड या बिजली वितरण कम्पनियां, बिजली उत्पादक कम्पनियों से, जो बिजली लेती रही हैं, उनका समयबद्ध भुगतान क्यों नहीं करतीं ?  इसका सीधा असर उत्पादक कंपनियों की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, क्योंकि वे अपने आर्थिक दायित्व पूरे नहीं कर पातीं । प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि उत्पादक कम्पनियां बेहद वित्तीय संकट में 8 और उनका घाटा 2020 में ही 5 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है । प्रधानमंत्री खुद दखल देकर इसका समाधान निकाल सकते हैं ।  वे सर्वदलीय और मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाएं और ऊर्जा संकट के प्रति सचेत करें । भारत सरकार ने 2016 में बिजली की दर और लागत सम्बन्धी जो नीति तैयार की थी, यह वितरण के नुकसान के 20 फीसदी तक सब्सिडी की अनुमति देती है ।

बिजली कानून के मुताबिक, वितरण कम्पनियों को सब्सिडी की राशि अग्रिम दी जानी चाहिये ।  यदि कानून का अक्षरश: पालन किया जाये, तो बिजली पर सब्सिडी दी जा सकती है, बिजली सस्ती दी जा सकती है या बिजली की आपूर्ति मुफ्त की जा सकती है राजधानी दिल्ली में 200 यूनिट तक बिजली नि:शुल्क है, फिर भी बजटीय घाटा अपनी सीमा में है ।  दिल्ली पर बकाया मात्र 3 करोड़ रुपये है ।  यह इसलिए है, क्योंकि सरकार सब्सिडी का भुगतान वितरण कम्पनियों को नियमित करती रही है ।  बहरहाल प्रधानमंत्री ने जो चिन्ता और सरोकार व्यक्त किये हैं, वे वित्तीय समस्या से जुड़े हैं ।  वह दलीय राजनीति नहीं है ।  राज्य भारत सरकार से भी कर्ज और अनुदान लेते रहे हैं, करों में उनकी जो हिस्सेदारी है, वह भी देर सबेर उन्हें मिल जाती है, उनका बजट अपने संसाधनों पर आधारित है, फिर भी राज्यों पर कजऱ् और बकाये का बोझ बना रहता है ।

कमोवेश यह विरोधाभास स्पष्ट होना चाहिये ।  बीते दो दशकों में भारत सरकार भुगतान के बकाए की दुरावस्था का कोई हल नहीं ढूंढ सकी है, लिहाजा बकाया बढ़ता जा रहा है ।  केरल और हिमाचल प्रदेश में बिजली सब्सिडी कम्पनियों को देने के बजाय सीधा उपभोक्ता को ट्रांसफर कर दी जाती है, लिहाजा बकाया लटकता नहीं रहता और आम नागरिक तक सब्सिडी पहुंच भी जाती है ।  दूसरे राज्य भी यह प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री अविलम्ब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाएं, ताकि किसी साझा निष्कर्ष तक पहुंचने की बात आगे बढ़ सके ।

Aanand Dubey

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