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विपक्ष के सामने कुआं और खाई

अजीत द्विवेदी
अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लगी विपक्षी पार्टियां इस बुनियादी सवाल पर बंटी हैं कि उनका प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा। कहने को कोई भी विपक्षी नेता अपने को दावेदार नहीं बता रहा है। लेकिन सबको पता है कि विपक्षी एकजुटता के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। पार्टियों के बीच गठबंधन, सीटों का बंटवारा, साझा न्यूनतम कार्यक्रम आदि चीजें तय करने में कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि सारी विपक्षी पार्टियां किसी न किसी समय एक साथ रह चुकी हैं। सबको एक-दूसरे की विचारधारा का पता है और सरकार चलाने के तौर-तरीकों से भी सब वाकिफ हैं। चुनाव लडऩे-लड़ाने की एक-दूसरे की क्षमता भी सबको पता है और किसी प्रादेशिक पार्टी को दूसरे राज्य में जाकर लडऩे की जरूरत नहीं है। इसलिए सीट बंटवारे की समस्या भी नहीं है। असली समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाला चेहरा कौन होगा? कोई चेहरा होगा भी या नहीं?

तभी विपक्षी पार्टियां इस सवाल को टाल रही हैं। पटना में के चंद्रशेखर राव ने यह कहते हुए इस सवाल का जवाब टाला कि यह बाद में तय होगा तो दिल्ली में नीतीश कुमार ने इस सवाल को टालते हुए कहा कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। तृणमूल कांग्रेस के नेता पहले कई बार ऐलान कर चुके हैं कि ममता बनर्जी के लिए अब दिल्ली दूर नहीं है लेकिन अब उनकी पार्टी भी मुंह बंद करके बैठी है। शरद पवार पहले ही उम्र और सेहत के आधार पर अपने को अलग कर चुके हैं।

एक अरविंद केजरीवाल जरूर अपनी डफली बजा रहे हैं और उनकी पार्टी दावा कर रही है कि 2024 का चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल होकर रहेगा लेकिन उनकी हकीकत सबको पता है। संभव है कि मौजूदा लोकसभा की तरह अगली लोकसभा में भी उनके पास एक भी सांसद न हो। अगर उनकी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करे तब भी उनके लोकसभा सांसदों की संख्या दहाई में पहुंचने की संभावना लगभग शून्य है। इसलिए उनके ढिंढोरा पीटने का कोई मतलब नहीं है।
अब सवाल है कि विपक्षी पार्टियों क्यों इस सवाल को लेकर दुविधा में हैं और उनके सामने क्या विकल्प हैं? यह भी सवाल है कि विपक्ष के लिए बेहतर क्या होगा- पीएम पद का दावेदार पेश करना या बिना दावेदार पेश किए चुनाव लडऩा? इसका जवाब आसान नहीं है। इसमें एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई है। पहले इस विकल्प पर विचार करें कि विपक्ष बिना दावेदार पेश किए लड़ता है तो क्या होगा? इस संभावना को देखते हुए भाजपा के आईटी सेल का प्रचार पहले ही शुरू हो गया है। सोशल मीडिया में ऐसी पोस्ट आने लगी है कि अगर विपक्षी पार्टियों की सरकार बनी तो हफ्ते के सातों दिन सात नेता बतौर प्रधानमंत्री काम करेंगे। एक दिन नीतीश कुमार तो दूसरे दिन ममता बनर्जी, तीसरे दिन शरद पवार, चौथे दिन अरविंद केजरीवाल आदि आदि। बिना दावेदार पेश किए लडऩे पर दूसरा प्रचार यह होगा कि विपक्ष के पास मोदी से मुकाबले का कोई नेता नहीं है। तब अकेले मोदी दावेदार होंगे और इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनका चेहरा अब भी सबसे ज्यादा वोट आकर्षित करने वाला चेहरा है।

अगर विपक्ष दूसरा विकल्प चुनता है यानी दावेदार पेश करके लडऩे का फैसला करता है तो सबसे बड़ा सवाल है कि वह चेहरा कौन होगा? क्या विपक्ष के पास मोदी की तरह अखिल भारतीय पहचान और अपील वाला कोई चेहरा है? विपक्ष के हर नेता की सीमाएं हैं। नीतीश कुमार का चेहरा विपक्ष को बिहार और झारखंड के अलावा कहीं और वोट नहीं दिला सकता है। वे चेहरा होंगे तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को या महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार को अतिरिक्त वोट नहीं दिला सकेंगे। इसी तरह ममता बनर्जी चेहरा होंगी तो वे बंगाल से बाहर किसी दूसरे राज्य में अतिरिक्त वोट नहीं दिला सकेंगी। इस तरह की सीमाएं हर प्रादेशिक नेता की हैं। जहां तक राहुल गांधी की बात है तो पिछले आठ-दस साल के सुनियोजित प्रचार से उनकी छवि एक अगंभीर और कम बुद्धि वाले नेता की बना दी गई है। तभी इस रणनीति में ज्यादा खतरे हैं। जैसे सबसे पहले तो चेहरा पेश होते ही मोदी के साथ उसकी तुलना होगी। राजनीतिक और प्रशासनिक क्षमता के अलावा दूसरे कई पहलुओं से यह तुलना होगी। ध्यान रहे पिछले आठ-दस साल में सोशल मीडिया में मोदी की ऐसी छवि गढ़ी गई है कि कोई भी नेता उनका मुकाबला नहीं कर सकता है। उनकी ईमानदारी, सादगी, देशभक्ति, बहादुरी आदि के ऐसे ऐसे किस्से जनता के दिमाग में बैठाए गए हैं कि उनके बरक्स दूसरा कोई भी नेता बहुत छोटा प्रतीत होगा।

दूसरा खतरा यह है कि प्रादेशिक पार्टियों की अस्मिता की राजनीति नहीं चल पाएगी। ध्यान रहे ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियां अस्मिता की राजनीति करती हैं। ममता बनर्जी बांग्ला अस्मिता की प्रतिनिधि नेता हैं तो उद्धव ठाकरे और शरद पवार मराठा अस्मिता की राजनीति करने वाले नेता हैं। स्टालिन द्रविड अस्मिता का प्रतिनिधित्व करते हैं तो के चंद्रशेखर राव तेलुगू प्राइड और देवगौड़ा परिवार कन्नड़ अस्मिता की राजनीति करने वाले हैं। पहले बिहारी अस्मिता नाम की कोई चीज नहीं होती थी लेकिन सोशल मीडिया के जमाने में अब यह भी एक मुद्दा है।

ऊपर से नीतीश कुमार ने खुद बिहारी उप राष्ट्रीयता को हवा दी है। ऐसे में अगर किसी एक राज्य का नेता विपक्ष का साझा दावेदार होता है तो दूसरे राज्यों में अस्मिता की राजनीति बिखर जाएगी। नीतीश कुमार के नाम पर ममता बनर्जी बांग्ला अस्मिता का दांव नहीं खेल सकती हैं। अगर उनका लक्ष्य लोकसभा की सारी या अधिकतम सीटें जीतने का है तो यह तभी संभव होगा, जब वे पहला बांग्ला प्रधानमंत्री बनने का दांव खेलें। इसी तरह नीतीश कुमार को फायदा तब होगा, जब पहला बिहारी प्रधानमंत्री बनने की संभावना का प्रचार हो।

इस लिहाज से बिना दावेदार पेश किए लडऩे का विकल्प कम नुकसान वाला है। अगर विपक्ष कोई दावेदार नहीं पेश करता है तो हर राज्य में प्रादेशिक क्षत्रप पीएम पद का अघोषित दावेदार होगा। वह क्षेत्रीय, जातीय और भाषायी अस्मिता का मुद्दा बना सकता है। प्रधानमंत्री मोदी के हिंदू हृदय सम्राट होने की धारणा पर तभी चोट होगी, जब प्रादेशिक पार्टियां उनकी गुजराती अस्मिता को मुद्दा बनाएंगी और उसके बरक्स अपनी अस्मिता का दांव चलेंगी। हालांकि यह इतना सरल नहीं होगा। नरेंद्र मोदी ने पहले ही इस संभावना को भांप लिया था और उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से चुनाव लड़ा। वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी गुजराती अस्मिता का राजनीतिक कार्ड इस्तेमाल करते हैं लेकिन साथ ही वे हिंदी पट्टी के लोगों के बीच पिछड़ी जाति और हिंदू पहचान का भी इस्तेमाल करते हैं। सो, अस्मिता की राजनीति करते समय विपक्षी पार्टियों को इसका ध्यान रखना होगा।

तभी दोनों विकल्पों में से बेहतर यह लगता है कि विपक्षी पार्टियां कोई चेहरा पेश न करें। सभी पार्टियां अपने अपने असर वाले राज्य में भाजपा को रोकने की राजनीति करें। जैसे 2004 के लोकसभा चुनाव में हुआ था। उस चुनाव में सपा को अपने इतिहास की सबसे ज्यादा 36 सीटें मिली थीं। राजद को अपने इतिहास की सबसे ज्यादा 25 सीटें मिली थीं और लेफ्ट पार्टियों ने भी अपने इतिहास का सबसे शानदार प्रदर्शन किया था और 60 सीटें जीती थीं। उसी तरह इस बार भी अगर विपक्षी पार्टियां तालमेल करती हैं और जिस राज्य में जिस पार्टी की ताकत है बाकी पार्टियां उस राज्य में उसका समर्थन करती हैं तो वह सबसे अच्छा विकल्प होगा। इसे एक लाइन में कहना हो तो कह सकते हैं कि एकजुट विपक्ष को विकेंद्रित राजनीतिक प्रयास करना चाहिए। यह भी नहीं दिखना चाहिए कि सब मिल कर मोदी को रोकने का प्रयास कर रहे हैं और यह भी नहीं होना चाहिए सब बिखरे हुए हों।
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Aanand Dubey

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