किसका तृप्तिकरण हो रहा है
हरिशंकर व्यास
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुष्टिकरण के जवाब में तृप्तिकरण का जुमला उछाला है। उन्होंने हैदराबाद में अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कहा कि भाजपा का लक्ष्य देश को तुष्टिकरण से तृप्तिकरण की ओर ले जाना है। तुष्टिकरण की बात तो समझ में आती है क्योंकि भाजपा दशकों से आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस और दूसरी कई भाजपा विरोधी क्षेत्रीय पार्टियां मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करती हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण भाजपा का राजनीतिक मुद्दा रहा है, जिसे बदलने का दावा पिछले आठ साल से किया जा रहा है। उसी बात को प्रधानमंत्री ने एक लाइन में बताया कि भाजपा का लक्ष्य तुष्टिकरण की बजाय तृप्तिकरण है।
सवाल है कि किसका और कैसा तृप्तिकरण होगा? इस देश में हजारों, लाखों लोग ऐसे हैं, जो सिर्फ इस बात से तृप्त हो गए हैं कि जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया है। बहुत से लोग इस बात से तृप्त हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। भाजपा और उसकी केंद्र व राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर तृप्ति के ऐसे अनेक मौके उपलब्ध कराए हैं। कहीं रेलवे स्टेशनों के नाम बदल कर तो कहीं शहरों और जिलों के नाम बदल कर। और नहीं तो मुस्लिम नेताओं, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके ही लोगों को संतोष कराया है। कुछ लोग तीन तलाक कानून से तृप्त हुए हैं तो कुछ लोग तृप्त होने के लिए संशोधित नागरिकता कानून का इंतजार कर रहे हैं।
सोचें, तृप्ति नितांत निजी भाव है, जो व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा से जुड़ा होता है। यह कोई सामूहिक या सार्वजनिक भाव नहीं है। किसी और के परेशान होने से या किसी और की मुश्किल देख कर, भले वह दुश्मन ही क्यों न हो, मन में जो भाव आता है उसे तृप्ति नहीं कहा जा सकता है। परपीड़ा से खुश होने वाला दुष्ट माना जाएगा तृप्त नहीं। और हां, संतोष और तृप्ति भी बिल्कुल अलग अलग मनोभाव हैं। सम्मान, धर्म और कला-संस्कृति की बात बाद में आती है, मन और आत्मा की तृप्ति का पहला आधार भरे पेट होना है। लेकिन भारत में तो सबसे बड़ा संकट ही रोटी और रोजगार का है! क्या कोई दावा कर सकता है कि जो 81 करोड़ लोग पांच किलो अनाज पर जीवन चला रहे हैं वे तृप्त हो रहे हैं? सरकार से मिलने वाला पांच किलो अनाज लेकर उनके मन में तृप्ति का भाव आता होगा या मजबूरी और शर्मिंदगी का भाव आता होगा? रोजगार गंवा कर मन बेचैन होता होगा या इस बात से तृप्ति का अहसास होता होगा कि मनरेगा में काम कर लेंगे? कोरोना महामारी के दौरान ऑक्सीजन की कमी से किसी अपने को तड़प कर दम तोड़ते हुए देखते समय तृप्ति का भाव आता होगा कि ग्लानि और असहायता का भाव आया होगा? देश सेवा का भाव लेकर सेना में जाने की तैयारी कर रहे नौजवानों को चार साल की अग्निवीर योजना तृप्ति देने वाली होगी या उसका मन निराशा से भरा होगा? असल में तृप्ति एक दार्शनिक किस्म का भाव है, जिसे भरे पेट और भरे मन के साथ महसूस किया जा सकता है। क्या भारत के लोगों को ऐसी तृप्ति नसीब हो रही है?
भारत में इसका उलटा हो रहा है। भारत का विशाल मध्य वर्ग द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास, जो सबसे तृप्त और खाया-पिया-अघाया हुआ वर्ग था वह सबसे अधिक बेचैन है। महंगाई की सबसे बड़ी मार वहीं झेल रहा है। रोजगार गंवाने की सबसे ज्यादा तकलीफें उसी को है। अपनी सामाजिक हैसियत से नीचे उतर कर मनरेगा में मजदूरी करने की मजूबरी उसी की है। सो, जो तृप्त था वह अब सबसे अतृप्त और बेचैन है। अपने जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रहा है। जो पहले से भगवान भरोसे जीवन काट रहा था वह सिर्फ इस बात से संतोष करता था कि भगवान ने उसे यहीं जीवन दिया है तो कोई क्या कर सकता है। वह पांच किलो अनाज या मनरेगा की मजदूरी को भगवान की इच्छा मान कर संतोष किए हुए है। उसे भी तृप्त तो नहीं कहा जा सकता है। फिर कौन तृप्त है और कैसा तृप्तिकरण है?