ब्लॉग

भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हैं?

वेद प्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय में आजकल एक अजीब-से मामले पर बहस चल रही है। मामला यह है कि क्या भारत के कुछ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना जाए या नहीं? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने का फैसला राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए या राज्यों के स्तर पर? अभी तक सारे भारत में जिन लोगों की संख्या धर्म की दृष्टि से कम है, उन्हें ही अल्पसंख्यक माना जाता है। इस पैमाने पर केंद्र सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों, सिखों, बौद्धों और जैनियों को अल्पसंख्यक होने की मान्यता दे रखी है।

यह मान्यता इन लोगों पर सभी प्रांतों में भी लागू होती है। जिन प्रांतों में ये लोग बहुसंख्यक होते हैं, वहां भी इन्हें अल्पसंख्यकों की सारी सुविधाएं मिलती हैं। ऐसे समस्त अल्पसंख्यकों की संख्या सारे भारत में लगभग 20 प्रतिशत है। अब अदालत में ऐसी याचिका लगाई गई है कि जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उन्हें वहां भी बहुसंख्यक क्यों माना जाता है?

जैसे लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में हिंदुओं की संख्या सिर्फ 1 प्रतिशत से लेकर ज्यादा से ज्यादा 41 प्रतिशत है। इन राज्यों में उन्हें अल्पसंख्यकों को मिलनेवाली सभी सुविधाएं क्यों नहीं दी जातीं? यही बात भाषा के आधार पर भी लागू होती है। यदि महाराष्ट्र में कन्नड़भाषी अल्पसंख्यक माने जाएंगे तो कर्नाटक में मराठीभाषी अल्पसंख्यक क्यों नहीं कहलाएंगे? यदि अल्पसंख्यकता का आधार भाषा को बना लिया जाए तो भारत के लगभग सभी भाषाभाषी किसी न किसी प्रांत में अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर जो बहस चलाएगा, वह बंधे-बंधाए घेरे में चलाएगा और उक्त कुछ राज्यों में हिंदुओं को शायद वह अल्पसंख्यकों का दर्जा भी दे दे। लेकिन यह अल्पसंख्यकवाद ही मेरी राय में त्याज्य है। देश के किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक का दर्जा देना अपने आप में गलत है। यदि यह राज्यों में भी सभी पर लागू कर दिया गया तो यह अनगिनत मुसीबतें खड़ी कर देगा।

हर वर्ग के लोग सुविधाओं के लालच में फंसकर अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने पर उतारु हो जाएंगे। इसके अलावा राज्यों का नक्शा बदलता रहता है। जो लोग किसी राज्य में आज बहुसंख्यक हैं, वे ही वहां कल अल्पसंख्यक बन सकते हैं। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर लोगों को दो श्रेणियों में बांटकर रखना राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी उचित नहीं है। अपने आप को ये लोग भारतीय कहने के पहले फलां-फलां जाति, धर्म या भाषा का व्यक्ति बताने पर आमादा होंगे। यह सांप्रदायिक और सामाजिक बंटवारा हमारे लोकतंत्र को भी अंदर से खोखला करता रहता है।

जब साधारण लोग मतदान करने जाते हैं तो अक्सर वे जाति, धर्म और भाषा को आधार बनाते हैं, जो कि भेडिय़ाधसान के अलावा कुछ नहीं है। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब मतदाता लोग शुद्ध गुणावगुण के आधार पर वोट डालते हैं। यह तभी संभव है, जबकि हमारे सार्वजनिक और सामूहिक जीवन में जाति, धर्म और भाषा को अत्यंत सीमित महत्व दिया जाए। निजी जीवन की महत्वपूर्ण पहचानों को सार्वजनिक जीवन पर लादना किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।

Aanand Dubey

superbharatnews@gmail.com, Mobile No. +91 7895558600, 7505953573

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *