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‘सभ्यता’ में ‘असभ्य’ मनुष्य नियति

हरिशंकर व्यास
मनुष्य सभ्यता के पिंजरों का वह पालतू जीव है, जिसके दिमाग में समझदारी, तर्कसंगतता-चेतनता याकि विजडम, रैशनालिटी की बुद्धि इसलिए नहीं बन सकती है क्योंकि वह पिंजरे में कुंद है। मनुष्य पांच हजार वर्षों से सभ्यता के पिंजरे में जब कुलीन वर्ग के सिखाए रट्टे (धर्म-समाज-राजनीति) का तोता है तो उसे यह सुध कैसे हो कि वह मनुष्य है और मनुष्य होने का उसका अर्थ और गरिमा तभी है जब दिमाग चेतन हो। समझदार हो। सत्य और झूठ के अंतर को बूझने की रैशनालिटी लिए हुए हो।

प्रलय का मुहाना -31:  बकौल अर्नोल्ड टॉयनबी सभ्यताएं आईं और गईं और ‘सभ्यता’ आगे बढ़ती गई। सवाल है इससे मनुष्य का क्या हुआ? क्या मनुष्य सभ्य और समझदार हुआ? सभ्यता ने मनुष्य को सिविलाइज्ड और विजडम से भरा-पूरा बनाया? क्या मनुष्य अपनी वैयक्तिकता में दिमाग, बुद्धि और स्वभाव में सभ्य-समझदार जिंदगी जी रहा है? ये सवाल मानव समाज, पृथ्वी और पर्यावरण के मौजूदा संकट की बुनियाद हैं। यदि व्यक्ति और उसकी वैयक्तिक जिंदगी सभ्य होती तो इतिहास वह नहीं होता है जो है। मानव द्वारा मानव के लिए सभ्यता का निर्माण बुनियादी तौर पर तो इंसानी खोपड़ी की प्रगति से था, जिसमें उसकी बेहतरी उद्देश्य था। दिमाग से पशुगत प्रवृत्तियों को मिटाना था। दिमाग को विवेकी, तर्कसंगत और  समझदार बनाना था। लेकिन हुआ क्या? मनुष्य स्वनिर्मित मायाजाल में अपने को भुला बैठा। मान लिया कि विकास और व्यवस्था की सभ्यता मतलब मनुष्य सभ्य!

भला कैसे? ऐसा मानना इस मान्यता में है कि मनुष्य जब सभ्यता की चौखट और चारदिवारी के भीतर जिंदगी जी रहा है तो वह कायदों में पाबंद है। सभ्यता वह घर है, जो भगवानजी और पृथ्वी माता की देन है और उसका घरवासी होना सभ्य होना है क्योंकि हर मनुष्य धर्मानुगत व्यवस्था से संचालित है। ऐसे ही यह बोध भी पुराना है कि सभ्यता मोटा-मोटी सामूहिक जीवन, सामुदायिकता में मनुष्यों का सभ्य आचार-विचार है तो इसलिए भी नागरिक का दिमाग अपने आप सभ्य!
तब पांच हजार वर्षों में सभ्यताओं के झमेले में मनुष्य ने कितनी समझदारी दिखाई? क्यों महाभारत हुए? जिंदगी के अनुभवों व संस्कारों से मानव पीढिय़ां क्यों सभ्य नहीं हुईं?

सभ्य बनने का मुगालता

लगता है सुमेर की पहली सभ्यता से ही मनुष्य का यह मुगालता है कि जब वह प्रकृति की नकल (कृषि) कर अपने बूते जीवनयापन संभव बना सकता है तो ऐसा होना सभ्य, श्रेष्ठ बन जाने का प्रमाण है। तमाम पशुओं से बेहतर और जंगल के राजा के बोध ने मनुष्य को अंधा बनाया। चिम्पांजी सहित तमाम जीव-जंतुओं से यदि वह अलग जिंदगी बनाए हुए है और जंगली, आदिम हिंसा की बर्बरता छोड़ चुका है तो यह उसके सभ्य बनने का प्रमाण है। सुमेर में पुजारी, राजा, कुलीन वर्ग ने जब सभ्यता का ताना-बाना बनाया और लोगों के लिए धर्म, समाज व राजनीति में गुंथी जीवन पद्धति बनी तो उसके बाद स्थायी तौर पर यह माना जाता है कि सभी मनुष्यों की वैयक्तिक बुद्धि का सभ्यता की तरह सभ्य व्यवहार में रूपांतरण है।
जबकि सत्य यह है कि और सभ्यता तथा व्यक्ति दोनों के आचरण में पशुगत प्रवृत्तियों में जस के तस व्यवहार चला आ रहा है।

कम आश्चर्य की बात नहीं जो दुनिया में हर तरफ व्यक्ति इस बोध में जीता है कि वह सभ्य है। हम और हमारी सभ्यता सबसे बेहतर है। और बेहतर होना शुरुआत से जन्मजात! जैसे हिंदुओं में माना जाता है वैसे बाकी सभ्यताओं में भी माना जाता है कि सनातनी सभ्यता अच्छी थी। वह सभ्य समाज का सभ्य काल था। देवताओं ने हमें बनाया इसलिए हम विश्वगुरू। हां, अब जरूर कलियुग है और असभ्य लोगों का बोलबाला है। ऐसा मनोविज्ञान सर्वत्र है कि पहले वक्त अच्छा था और अब खराब। पहले लोग अच्छे थे, अब खराब। पहले सभ्य थे और अब असभ्य। इस सर्वदेशीय मनोभाव में मनुष्यों का यह आम गरूर भी काम करता होता है कि हमने कितनी प्रगति की है। हम बाकी पशुओं से कितने अलग और खास हैं। जाहिर है अलग और खास की धारणा नियोलिथिक काल में कबीलाओं के ओझा-पुजारियों के बनवाए उस सिलसिले का परिणाम है, जिसमें अलौकिक शक्तियों, ईश्वर, स्वर्ग-नरक, राजा और कुलीन वर्ग की छत्रछाया में मनुष्यों की जीवन पद्धति का निर्माण था।

विकलांगों की कुलीन ठेकेदारी
उस नाते सभ्यता वह दुष्चक्र है, वह घुट्टी है, जिससे मनुष्य दिमाग स्थायी तौर पर पंगु और विकलांग हुआ है। वह सभ्यता के जाले को तोड़ कर सोच नहीं सकता है कि क्या सच है और क्या गलत? सभ्यता वह मायाजाल है, जिसमें हर इंसान इस मतिभ्रम में जिंदगी गुजारता है कि वह सभ्य है, जबकि होता नहीं है। न व्यक्ति के स्तर पर और न समाज, समुदाय, नस्ल और देशों के स्तर पर। तभी यह प्राथमिकता नहीं बनती कि पहले नागरिक सभ्य बने। इसलिए क्योंकि तब कुलीन वर्ग का अस्तित्व खतरे में पड़ेगा। शायद यहीं वजह है, जिससे सभ्यताएं बनीं और खत्म होती गईं। सभ्यताओं का उत्थान-पतन यदि परिस्थितियों और कुलीन वर्ग की पैदाइश से है तो श्रेष्ठिजनों की स्वार्थपरकता और आम लोगों की बुद्धिहीनता व असभ्य व्यवहार सचमुच में पतन के निर्णायक कारण है।

इसलिए हिसाब से हर सभ्यता की पहली प्राथमिकता लोगों के वैयक्तिक जीवन को सभ्य और समझदार बनवाने की होनी चाहिए थी। ऐसा होता तो न केवल मजबूत सभ्यता बनती, बल्कि वह दीर्घायु और टिकाऊ होती। लेकिन पांच हजार वर्षों का अनुभव है कि सभ्यताओं ने प्रजा को, मनुष्यों को सभ्य नहीं बनाया। उलटे व्यक्ति और वैयक्तिक बुद्धि की ठेकेदारी में लोगों को अज्ञानी और  मूर्ख बनाए रखा। नतीजतन बार-बार उत्थान-पतन की दास्तां।

मनुष्य पांच हजार वर्षों से सभ्यता रूपी घर के भीतर कुलीन वर्ग की ठेकेदारी में जीता चला आ रहा है। मनुष्य दिमाग हमेशा ठेकेदारों, कुलीन वर्ग के अधीन रहा है। दिमाग में उसी ज्ञान का विस्तार होता गया है, जिसे नियोलिथिक काल में कबीलों के ओझाओं-पुजारियों ने भरना शुरू किया था। पिछले पांच हजार वर्षों में सभ्यताओं का माई-बाप धर्म है। सुमेर से लेकर मिस्र, सिंधु नदी, चाइनीज, ग्रीक, रोम और ईसाई व इस्लामी सभ्यता की सभी चारदिवारियों में मनुष्य जीवन का कुल लब्बोलुआब जादू-टोनों, अंधविश्वास और आस्थाओं में सांस लेते हुए जीने का है। सभ्यता की नींव ही क्योंकि जादू-टोनों, पुजारियों और धर्म से है तो आदिकालीन ओझाओं से लेकर ईसा पूर्व और बाद के दार्शनिकों, धर्मगुरूओं, ईश्वर अवतार सभी ने मनुष्य के आगे वे सोल्यूशन रखे, जिनमें उनके दिमाग को सिर्फ फॉलो करना था। त्रासद सत्य है कि सभ्यता के प्रर्वतकों-प्रायोजकों और दार्शनिकों ने मनुष्य की खास वैयक्तिक दिमाग रचना को उडऩे का मौका नहीं दिया। उलटे ये मत बने कि मनुष्य सामाजिक पशु है या राजनीतिक पशु। ये काबू में तभी रहेंगे जब आबादी का छोटा अभिजात वर्ग उर्फ अरिस्टोक्रैट (धर्माचार्य, ईश्वर, ईश्वर के अवतारी राजा और शासन के पुरोहित, श्रेष्ठिजन) लोगों को धर्म, राष्ट्र-राज्य जैसी साझा उपलब्धियों के लिए प्रेरित करते हुए हों। जैसे हम सनातनियों की मान्यताओं में राजा और उसके पथप्रदर्शक ऋषि-मुनियों-धर्माचार्यों के कुलीन वर्ग से समाज के जीवन में सुख-शांति और समृद्धि का आइडिया पैठा हुआ है तो ऐसा बाकी प्राचीन सभ्यताओं में भी है।

उस नाते मनुष्य और उसके वैयक्तिक दिमाग को समझदार-सभ्य बनाने की जरूरत ही नहीं। सब कुछ उस विशिष्ट वर्ग से होना है जो सभ्यतागत स्तर पर समाज के जीवन को चलाने के लिए भौतिक उपलब्धियां बनवाए रखे। अर्नोल्ड टॉयनबी और हॉब्स दोनों ने सभ्य समाज की प्रगति में उन ‘कुलीनों’ के प्रभावी उपयोग पर जोर दिया है, जिनसे साझा प्राप्तियां होती हैं। बकौल एंथनी पैग्डेन- सभ्यता का दार्शनिक इतिहास दरअसल प्रगतिशील जटिलताओं और परिशोधन का इतिहास है। और ऐसा होना उन मनुष्यों की अभिव्यक्ति की आजादी से संभव हुआ है जो एक समुदाय के सदस्यों के रूप में स्वतंत्र जीवन जीते रहे। मतलब अभिजात, श्रेष्ठि वर्ग। इसमें राज्याश्रित कुलीन हैं तो स्वतंत्रमिजाजी देवर्षि-चिंतक भी।
पिंजरे में रैशनालिटी

कुलीन वर्ग की ठेकेदारी से साझा-सामुदायिक प्राप्तियों की थीसिस पर ही वैयक्तिक नागरिक दिमाग की अनदेखी हुई है। नागरिक सभ्यता की यांत्रिकता का पुर्जा बना है। सभ्यता सभ्य है तो उसमें रहने वाला अपने आप सभ्य, इस एप्रोच के कारण मनुष्य जीवन लगातार नारकीयता भोगता आया है। सभ्यता के पिंजरों का वह ऐसा पालतू जीव बना है, जिसके दिमाग में समझदारी, तर्कसंगतता-चेतनता याकि विजडम, रैशनालिटी की बुद्धि इसलिए नहीं  बन सकती है क्योंकि वह पिंजरे में कुंद है। जब वह पांच हजार वर्षों से सभ्यता के पिंजरे में कुलीन वर्ग के सिखाए रट्टे (धर्म-समाज-राजनीति) का तोता है तो उसे भला यह कैसे सुध होगी कि वह मनुष्य है और मनुष्य होने का उसका अर्थ और गरिमा तभी है जब दिमाग सोचता हुआ हो। समझदार हो। सत्य और झूठ के अंतर को जानने की दिमाग रैशनालिटी लिए हुए हो।
गौरतलब है सभ्य और सभ्यता का बोध तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के बाद का है। फ्रांस में तेरहवीं- चौदहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी भाषा में लैटिन ‘सिविटा’ से शब्द ‘सभ्यता’ की व्युत्पति हुई। इससे पहले इसके पर्याय के पुलिस, पोली या विनम्र जैसे शब्द थे। व्यक्ति के स्वभाव के परिप्रेक्ष्य में कानून और सजा की बहस में ‘सभ्य’ ‘सभ्यता’ का आइडिया बना। मतलब व्यक्ति का व्यवहार कैसा है, इसके परिप्रेक्ष्य में सभ्य होने न होने की सोच का आइडिया।

बेसिक अर्थ वह तराजू है, जिसमें व्यक्ति को उसकी बुद्धि, गुण-अवगुण, अच्छे-बुरे, सभ्य-असभ्य व्यवहार में तौलना है। यह वैयक्तिक जीवन व्यवहार में किसी के सभ्य या असभ्य होने की धारणा है। धीरे-धीरे यह शब्द देशों, नस्लों, कई देशों के सामूहिक मिजाज की मोहर बना। दरअसल ‘सभ्य’ और ‘सभ्यता’ की लोकप्रियता और उपयोगिता वैयक्तिक और सामूहिक जीवन दोनों में ‘जंगली’ तथा ‘बर्बर’ के कंट्रास्ट में व्यापक हुई। यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद ‘सभ्यता’ के जुमले से पश्चिमी देशों में ‘सभ्य’ होने का गुमान बना। ईसाई-जुडियो संस्कृति में पश्चिमी देशों ने धर्म-संस्कृति और विरासत की साझा बुनावट में नई प्रगति व सेकुलर प्राप्तियों के आधार पर अपने समूह को ‘सभ्यता’ (पश्चिमी) का चोगा पहनाया। फिर उसी के हवाले सभ्यतागत पॉवर व श्रेष्ठता के दंभ में दुनिया को सभ्य बनाने का ठेका बनाया। पश्चिमी देशों के पुरुषार्थियों, साहसियों, स्वतंत्रमिजाजी देवर्षियों ने तब पृथ्वी को खोजा और जाना तो उससे ‘सभ्यताओं’ के फर्क का बोध बना। पृथ्वी के कई इलाकों में पश्चिमी व्यापारियों-सेनानियों ने कब्जा बना कर, वहां के लोगों को गुलाम बना कर उपनिवेशवाद को यह कह कर जायज ठहराया कि वे क्योंकि सभ्य हैं इसलिए यह उनकी उपलब्धि है और वे अब अपना यह दायित्व मानते हैं, जो दुनिया के बाकी लोगों, धर्मों और देशों को सभ्य बनाएं!

एक हिसाब से यह शुरुआती सभ्यताओं की पुनरावृत्ति थी। सुमेर-मेसोपोटामिया में भी पुजारी-राजा-कुलीन वर्ग ने यह कहते हुए मनुष्यों को सभ्यता में बांधा  था कि ऐसा उनके हित में है। जैसे पश्चिमी देशों ने सभ्यता के दंभ में पृथ्वी पर अपना साम्राज्य बना लोगों का शोषण किया वैसे ही प्रारंभिक सभ्यताओं में कुलीन वर्ग की पैदाइश मनुष्यों की भलाई के झांसे की थी। मनुष्यों के शोषण और उनमें भेदभाव बनाने वाली थी।

Aanand Dubey

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